सतनामी समाज क्या है

सतनामी में ब्राह्मण से लेकर क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र सभी वर्ण के लगभग 72 जातियों के लोग शामिल हुए हैं।सर्वाधिक तेली व राउत जाति के लोग है। सत‌नाम धर्म / पंथ एक जाति विहिन, वर्ण विहीन समुदाय हैं। गुरू घासीदास जी के सतनाम अभियान से इनमें सभी जातियों का समागम हुआ हैं। यहाँ गोत्र है जाति पूरी तरह विलिन हो गये हैं। कबीर पंथ में अब भी जातियाँ हैं और वहाँ रोटी-बेटी नहीं है।और कुछ लोग बल्कि हिन्दू धर्म का अभिन्न अंग हैं। कबीर के अभियान से उस समय काल में हिंदू खतरे में पड़ गया था सभी जाति धर्म के लोग धार्मिक, ढोंग-पांखंड अंधविश्वास को तिलांजलि दे रहे थे, छोड़ रहे थे और कबीर के सतमार्ग को अंगीकार कर रहे थे जिसे बाद में उनके अनुयाई कबीर पंथ कहने लगे। ये बात जब हिंदू धर्म के रामानंदाचार्य, शंकराचार्य व सामंती धर्माधिकारी के पास पहुंची तो उन्होंने पंडे-पुजारी और कीर्तनकारों को लगाकर जो-जो जाति के लोग ये कबीर के साथ चलने लगे उसे अधम - नीच घोषित करने लगे। तुलसीदास दुबे भी अपने राम चरित मानस में जे वर्णाधम तेली कुम्हारा, श्वपच कोल किरात कलवारा लिखकर अपमानित किया। हिंदू सामंत वादियों और पाखंडियों भेदभाव मारपीट और अन्याय अत्याचार से तंग आकर कुछ लोग कबीर के सतमार्ग को छोड़ फिर हिंदू रीति-नीति, संस्कृति-संस्कार मानने लगे और हिन्दू धर्म का अभिन्न अंग हो गए। और कुछ लोग छत्तीसगढ़ क्षेत्र में गुरू घासी दास जी के सतनाम अभियान से प्रभावित होकर ये जाति अपमान से बचने सतनाम मार्ग अंगीकार कर ये जाति-पाति धर्म-कर्म रीति-नीति संस्कृति संस्कार को तिलांजलि देकर संत-अहिंसा व शुद्धता- सात्विकता के परम पराकाष्टा के मार्ग, सतनाम मार्ग को अंगीकृत कर सतनामी बन गए। सतनाम

गुरु घासीदास बाबा जी के पाँच निशानियाँ

  1. खड़ाऊ (चरण पादुका)
  2. कण्ठी माला
  3. जनेऊ
  4. चंदन तिलक
  5. श्वेतखांम

1. खड़ाऊ :- खड़ाऊ का तात्पर्य चरण पादुका से है। परम् पूज्य गुरू घासीदास बाबा एवं सभी गुरूजन खड़ाऊ धारण किया करते थे। बाबा जी के सभी धर्मस्थलों, गुरुधामों एवं जिस किसी संत के यहाँ गुरूगद्दी की स्थापना की जाती है वहाँ गुरूगद्दी के साथ खड़ाऊ की स्थापना की जाती है। खड़ाऊ बाबा जी के चरण को प्रदर्शित करता है। गुरूघासीदास बाबा जी ने अपने अमृत संदेश गुरुवाणी में कहा है कि मूर्ति पूजन नहीं करना चाहिए, करना है तो बोलता पुरूष की पूजा करो। अर्थात् हम किसी भी पत्थर से निर्मित मूरत की पूजा करें, उसके सामने अपना सिर फोड़ें फिर भी हमें कुछ भी प्राप्ति नहीं हो सकता, लेकिन हम किसी मानव से मदद की आग्रह करें, निवेदन करें तो हमें निश्चित ही सहायता प्राप्त होगी। उसी प्रकार हमें अपने माता-पिता स्वयं से बड़े लोगों के प्रतिदिन चरण स्पर्श करनी चाहिए। जब हम अपने बड़ों का सम्मान करेंगे तो हमें उनसे आशीर्वाद मिलेगा जो हमें हमारे जीवन में आगे बढ़ने में सहायक होगा। बड़ों के आशीर्वाद से किया गया हर कार्य सफलता को प्राप्त करता है।

चरण स्पर्श से तात्पर्य झुकने से है, अर्थात् जो व्यक्ति अपने जीवन में सरल, नरम स्वभाव का होता है वह व्यक्ति सफलता की सीढ़ी चढ़ता ही जाता है। इसके विपरीत जो व्यक्ति अहंकारी, घमंडी होता है, जो किसी के आगे नहीं झुकता वह निरंतर असफलता को प्राप्त करता है, समाज में अपना मान-सम्मान सब कुछ गवों बैठता है। अहंकार प्रगति में बाधक होता है।

एक दोहा भी है :-

बड़े-बड़े सब कहे, छोटा बने ना कोय ।
जो छोटा बन जात है, उससे बड़ा न कोय ।।


2. कण्ठी माला :-परम् पूज्य गुरु घासीदास बाबा जी ने कण्ठी माला धारण करने की शिक्षा दी है। कण्ठी माला में दो वस्तुओं का उपयोग होता है- 1 कण्ठी तथा 2 श्वेत सुत (धागा) कण्ठी मनुष्य का प्रतीक तथा श्वेत सुत सत् का प्रतीक है। कण्ठी माला हमें यह शिक्षा प्रदान करता है कि जिस तरह एक-एक कण्ठी माला को श्वेत सूत में पिरोने से कण्ठी माला बनता है, उसी तरह एक-एक मनुष्य को (धागा) रूपी सत्‌मार्ग पर पिरोकर चलाना है, एकता के सूत में बाँधना है, अर्थात् कण्ठी माला एकता का प्रतीक है।

कण्ठी माला को कण्ठ अर्थात् गला में धारण किया जाता हैं। कण्ठी माला धारण करने से हमारे कण्ठ में मिठास उत्पन्न होती है, हमारी वाणी में मधुरता आती है। मधुर और प्रेम पूर्वक वाणी बोलने वाले ब्यक्ति को सभी प्रिय होते हैं, समाज में भी उन्हे सम्मान मिलता है, मधुरभाषी, व्यक्ति सफलता हासिल करता है।

अतः समाज से विनम्र अपील है कि कण्ठी माला धारण करें और कराएं। समाज को सुसंगठित सुद्ध संस्कारिक बनाने के लिए संकल्पित होकर समाज हित में सदैव कार्य करते रहें।

    सात प्रतिज्ञाएं:-
  1. पर नारी माता समान, पर पुरूष पिता समान।
  2. सदा नशापान से दूर रहना।
  3. सदा मांसाहार से दूर रहना।
  4. जुआ, चोरी से दूर रहना ।
  5. सदा सत बोलना, सदा सत सुनना, सदा सत देखा।
  6. सदा गुरू, माता-पिता का सम्मान करना।
  7. सदा सत-अहिंसा के मार्ग पर चलना।
    नौ इन्द्रियाः-
  1. दो आँख -02
  2. दो कान- -02
  3. दो नाक की नली- -02
  4. मुँह- -01
  5. दो गुप्त इन्द्री-- -02

जनेऊ हमें सिखाता है, अपने नौ इद्रियों को संयम करना। जनेऊ मर्यादा, संयम स्वच्छता, पवित्रता, शुद्धता का प्रतीक है। जनेऊ कण्ठी धारण करने से मनुष्य के व्यक्तित्व में निखार आता है। मनुष्य स्वयं के अंदर झॉकता है, और अपने अंदर भरे हुए सारे विकार (लोभ, मोह, माया, अहंकार, ईष्या, द्वेष, काम क्रोध, जलन) को दूर करने में सफलता प्राप्त करता है। जनेऊ और कण्ठी धारण करने वाला व्यक्ति समाज में संत की उपाधि हासिल करता है, और सत का प्रचार करते हुए भटके हुए मानव को सत्‌मार्ग प्रशस्त करता है, जिससे समाज में सात्विक्ता नैतिकता, सांस्कारिता, धार्मिकता का विकास होता है, समाज शैक्षणिक और आर्थिक रूप से मजबूत बनता है।


04. चंदनः- चंदन की लकड़ी देखने में बहुत ही मनमोहक सुन्दर, पवित्र होती है। और छूने में बेहत शीतल होती है इसलिए सर्प भी चंदन की खुशबु और शीतलता से आकर्षित होकर चंदन के वृक्ष से कई दिनों तक लिपटा रहता है, यहां तक की भोजन को भी त्याग कर चंदन की खुशबु में मोहित रहता है।

पूरे विश्व में चंदन के वृक्ष को पवित्र माना जाता है, सभी धर्मों के लोग अपने धार्मिक कार्यों में चंदन का उपयोग विशेष तौर पर करते है, क्योंकि चंदन की महक शीतलता एवं शांति प्रदान करता है।

हम चंदन को सृष्टीकर्ता सतपुरष पिता के रूप में देख सकते है, जिस प्रकार चंदन के वृक्ष को काटकर छिलकर अनेक तरह के वस्तु का निर्माण किया जाता है। सभी धर्मो के लोग अपने धार्मिक कार्यों में चंदन का उपयोग करते है। क्योकि चंदन पवित्र है, शीतलता और शांति प्रदान करता है, ठीक उसी तरह सतपुरूष पिता स्वयं के शरीर एवं वचन से सृष्टि का निर्माण किये हैं, धरती, आकाश, जल, वायु, अग्नि, प्रकृति आदि को बनाया है जिससे जीवन का संचार होता है।

चंदन मानव के समान भी है जिस तरह चंदन के वृक्ष को हथियार से काटकर छिलकर उसके सार भाग को ही लिया जाता है, उसे सूर्य की तेज रौशनी में सुखाकर तपाकर उपयोग करने योग्य बनाया जाता है। उसी प्रकार जब मनुष्य किसी महापुरूष या ज्ञानी व्यक्ति के संगत में आता है तब वह अपने शिष्यों को ज्ञान रूपी हथियार से छिलकर उसके सारे अवगुणों को दूर करके उसे सतगुण सिखाता है, और सतगुणों को निखारता है, जिससे एक साधारण मनुष्य संत बन जाता है, उसकी पहचान कंठी, जनेऊ, दाढ़ी मूछ से होती है, वह संत जप-तप, ध्यान- साधना, त्याग करके आत्मज्ञान की प्राप्ति करता है, उसके भीतर के सभी अवगुण काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईष्या, द्वेष, जलन, अहंकार, नष्ट होते जाते हैं। वह संत महानता को हासिल करता है।

चंदन की लकड़ी को पत्थर (ओड़सा) से गोल-गोल घुमाकर घिसा जाता है, उसी प्रकार चंदन रूपी संत को पत्थर (ओड़सा) रूपी भवसागर से पार होने के लिए अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है, फिर भी वह अपना प्रयास नहीं छोड़ता, लगातार प्रयत्न ही करता रहता है संत के लगातार प्रयास से अग्नि का निर्माण होता है, अर्थात् वह संत प्रकाशवान हो जाता है, पूरे मानव जगत को अपने ज्ञान रूपी प्रकाश से प्रकाशित करता है। जब कोई महात्मा पुरूष चंदन की लकड़ी को पत्थर (ओड़सा) में घिसता है तो उपरोक्त क्रियाएं होती है, जिससे अग्नि रूपी चंदन बनता है। इस चंदन को गुरूजन लोगों के मस्तक पर लगाते है-तो उसके तेज प्रकाश अग्नि से मनुष्य के अंदर के अवगुण जलने लगते है, वह शीतलता प्राप्त करता है, लेकिन जो व्यक्ति चंदन, तिलक लगाने वाले गुरू को यह कहता है कि चंदन लगाने से क्या होगा या चंदन के महत्व को नहीं समझता उसका अंतरमन प्रकाशित नहीं होता, वह अंधकार में ही पड़ा रहता है, लेकिन अगर कोई मनुष्य उस चंदन को गुरू के मार्गदर्शन में निरंतर अपने मस्तक में तिलक करता रहता है, तो उसके बुद्धि में विकास, चित्त शांत, मन स्थिर रहता है और वह व्यक्ति प्रगति के मार्ग पर अग्रसर होता ही रहता है।

जो मानुष अग्र चंदन लगावें ।
ताकर सकल विधन मिट जावें ।।

05. श्वेतखांमः- परम्पूज्य गुरु घासीदास बाबा की पाँचवी निशानी श्वेत खांम है जिसे हम जैतखाम के नाम से भी पुकारते है। श्वेतखांम को सतनाम धर्म का प्रतीक भी कहा जाता है। सतपुरूष पिता ने जब सहज अंश सृहज अंश को धरती में जाकर सत प्रकाश, करने हंसा उबारने के लिए आदेशित किये तब सहज अंश व सृहज अंश ने सतपुरूष बाबा जी से निवेदन किया-हे पिता! हम आपके आदेश का पालन करेंगें, लेकिन हम हंसा कैसे उबारेंगे? यह सुनकर सतपुरूष पिता ने उनके हाथो में जैतखांम की निशानी दिये और कहा-हे सहज अंश! जो मानव इस श्वेतखांम का वास्तविक अर्थ समझकर अपने जीवन में आत्मसात् करेगा पूर्ण जीवन सत्, अहिंसा के मार्ग में चलेगा वह हंसा मुक्ति के मार्ग तक पहुँच सकता है, इस श्वेतखांम का पूर्ण अर्थ ही मानव जगत में फैलाना है। यह मार्गदर्शन मिलने के पश्चात सहज अंश व सृहज अंश धरती में आते हैं। धरती में आने के बाद उनका नाम क्रमशः पड़ा-

सहज अंश- गुरूघासीदास बाबा
सृहज अंश-गुरू माता सफुरा माता

धरती में आकर बाबा ने अपने अमृत वचनों में श्वेत खांम का पूर्ण अर्थ मानव समाज को समझाएं हैं, आईये समझने का प्रयास करते है......

जैतखाम के महत्वपूर्ण अंगः-

  1. धरती
  2. चौरा
  3. खाम
  4. हुक
  5. डण्डा
  6. झण्डा
  7. मुकुट

01. धरतीः- धरती का तात्पर्य स्थान, मिट्टी, नींव, आधार से है, अर्थात् जिस स्थान मिट्टी (देश) आधार (समाज व परिवार) में हमने जन्म लिया है, सदा उसका मान बनाएं रखना चाहिये, ऐसे कोई भी अनैतिक कार्य नहीं करना चाहिए-जिससे देश, समाज और परिवार को अपमानित होना पड़े । सदा अपने परिवार समाज व देश के प्रति कर्तव्य का निष्ठा पूर्वक पालन करें, हमेशा उनके विकास के लिए कार्य करते रहना चाहिए। अपने माता-पिता व गुरू का सम्मान करना चाहिए, माता-पिता से मिले संस्कार व गुरू से मिले ज्ञान का सदा स्मरण रहना चाहिए। माता-पिता व गुरू का अपमान किसी भी कीमत पर होने न देखें। जिस तरह धरती सभी का बोझ उठाती है, उसी तरह हमें भी अपने परिवार, समाज व देश के प्रति जो जिम्मदारी है, उसे पुरा करने में अपना योगदान देना चाहिए उनके सर्वागीण विकास हेतु सदा प्रयासरत रहना चाहिए। जिस तरह हमारा जन्म माता-पिता के आशीर्वाद से इस धरती में हुआ है, उसी तरह हमे भी गृहस्थ जीवन में प्रवेश कर वंश का विस्तार करना चाहिए जिससे धरती पर जीवन का विस्तार निरंतर होता रहें।

02 चौराः- चौरा हमारे जीवन को प्रदर्शित करता है, जिस तरह हम चौरा को ईट, पत्थर, रेत, सीमेंन्ट से आकार देते है, फिर सफेद रंग से रंगकर सजाते है, सुन्दर बनाते है, प्रतिदिन साफ-सफाई कर उसे स्वच्छ रखते है, उसी तरह हमे अपने चौंरा रूपी जीवन को माता-पिता व गुरू से प्राप्त संस्कार शिक्षा-दीक्षा के अनुरूप चलकर अपने जीवन को शिक्षित ज्ञानवान सुदृढ़, स्वावलंबी, संस्कारिक बनाना चाहिए, अपने जीवन में सदा सत्मार्ग में चलकर सत्कर्म करते रहना चाहिए, अपने जीवन को हमें इस तरह से स्वच्छ, निर्मल, सुन्दर व सवारना चाहिए जिससे हमारे जीवन का मूल उद्देश्य मानव कल्याण, प्रत्येक जीव का सम्मान व जीवन भर हमारे द्वारा किए गये उत्कृष्ट कार्यों से अन्य लोगो को प्रेरणा व दिशा मिलनी चाहिए ताकि अन्य भी हमारी तरह अपने जीवन का मूल उद्देश्य समझकर अपने जीवन को सार्थक बनाएं।

03. खांमः- खांम एक मनुष्य को प्रदर्शित करता है। जिस तरह खाम चौंरा में स्थापित या खड़ा किया जाता है, उसी प्रकार चौरा रूपी जीवन में मनुष्य भी खड़ा रहता है। खांम हमें अनेक शिक्षाएं प्रदान करता है। सतनाम धर्म की संस्कृति के अनुसार खांम लकड़ी का होना चाहिए, लेकिन आजकल समाज में इसे बदलकर सीमेन्ट, रेत, गिट्टी से निर्माण किया जा रहा है, वह धर्म, संस्कृति के अनुरूप नहीं है, इसलिए ऐसा करना गुरु घासीदास बाबा जी के सिद्धान्तो के विपरीत माना जायेगा या अपमान भी कह सकते है।

खांम लकड़ी का ही होना चाहिए बाबा जी ने अपने संदेशों में कारण भी समझाएं है, खांम एक मनुष्य की पहचाान है, जिस तरह मनुष्य जन्म लेता है तो उसकी मृत्यु भी निश्चित है, अर्थात् नष्ट होकर मिट्टी में मिल जायेगा।

लकड़ी एक ऐसा वस्तु है जिसकी आवश्यकता जन्म से लेकर मृत्यु तक होती है, यदि हम नदी में डूब रहे है, तो एक लकड़ी के सहारे भी किनारे तक पहुँचा जा सकता है, लेकिन सीमेंट से बने खाम को सिर्फ एक स्मारक के रूप में ही समझा जायेगा और उस खांम के पीछे छिपे अध्यात्मिक संदेश लुप्त हो जायेंगे, यह समाज हित में नहीं है, हमें बाबा जी के एक-एक संदेशों, निशानियों को समझकर उसे पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ाते रहना चाहिए। खांम मनुष्य का प्रतीक है, खांम रूपी मनुष्य को चौरा रूपी जीवन को कैसे जीना चाहिए इस पर भी बाबा जी ने अपने संदेश दिए है। जिस तरह खांम अपने स्थान में स्थिर खड़ा रहता है, प्रतिवर्ष ऋतुएँ बदलती रहती है, कभी बहुत तेज बारिश गर्मी, ऑधी, तूफान आते रहते है, लेकिन खांम अपने स्थान पे अडिग रहता है, अर्थात् प्रत्येक मनुष्य को अपने जीवन में आने वाली सभी तरह की परेशानीयों या विपत्तियों के सामने हार नहीं मानना चाहिए बल्कि जिस तरह खांम अपने स्थान में स्थिर रहता है, उसी तरह हमें सभी समस्याओं से लड़ना या संघर्ष करना चाहिए, साथ ही जब तक अपने कार्य में सफल न हो जाए हार नहीं मानना चाहिए। लोग अपने जीवन में सदा धर्म के प्रति, समाज के प्रति, देश के प्रति, परिवार के प्रति स्थिरता लाने की आवश्यकता है, धर्म संस्कृति के विपरीत कभी भी नहीं जाना चाहिए। जिस समाज में हमने जन्म लिया है। उसके प्रति सम्मान बनाएं रखना चाहिए तथा समाज के सर्वांगीण विकास में अपने योगदान देते रहना चाहिए। यदि हम अपने जीवन में उच्च स्थान पर पहुँच गए तो हमारा कर्तव्य यह होना चाहिए कि समाज के कमजोर लोगों को आगे बढ़ाने में अपना योगदान करते रहना चाहिए, तभी हम समाज के सच्चे हितैषी व शुभचिंतक कहलाएँगे।

04. हुकः- चौरा, जीवन, खांम, मनुष्य और हुक मनुष्य के हाथों को प्रदर्शित करता है, जिस तरह मनुष्य के दो हाथ होते है, उसी तरह खांम में हमेशा दो हुक होना ही चाहिये, लेकिन समाज अज्ञानता वश कभी दो तो कभी तीन हुक भी लगाते है, जो कदापि उचित नहीं है, समाज इसे गंभीरता से विचार करें और संस्कृति के अनुरूप ही हुक लगाये।

05. सादा झंडाः-सतनाम धर्म का प्रतीक ध्वज सफेद एवं चार कोनो वाला होता है। परम्पूज्य गुरु घासीदास बाबा जी ने सफेद ध्वज के माध्यम से पुरे मानव समाज को यह संदेश दिए है कि सफेद झंडा, शांति, सत्, स्वच्छता, पवित्रता, निर्मलता अहिंसा का प्रतीक है, अर्थात् पूरे मानव समाज को सफेद झंडे की तरह अपने कर्म, मन व वचन को रखना चाहिए, मनुष्य को सदा अपना कर्म, सत् पर आधारित रखना चाहिए, सत बोलो, सत सुनो, सत देखो के सिद्धांत में चलना चाहिए, सदा अपने तन और मन को निर्मल व पवित्र बनाए रखना चाहिए। सफेद ध्वज अहिंसा का भी प्रतीक है। पूरे मानव समाज को किसी भी तरह की हिंसा नहीं करनी चाहिए, हमेशा अहिंसावादी बनकर रहना चाहिए, मानव में मानवता के गुण होने चाहिए, मानवता हमें यह सिखाता है कि मानव एक समान है मानव में जाति-पाति, ऊंच-नीच, भेद-भाव, छुआछूत की भावना नहीं होना चाहिए, साथ ही धरती पर जन्में समस्त प्राणी, जीव जंतुओं का भी समान अधिकार है, सभी जीवों का सम्मान करना हमारा धर्म होना चाहिए। किसी भी जीव जंतुओं की हत्या कर मांस भक्षण करना एवं किसी भी तरह की नशापान करना मनुष्य का धर्म नहीं है, बल्कि ऐसा करना अधर्म की श्रेणी में आता है, परस्पर सभी जीवों का सम्मान करना ही मनुष्यता है। पूरे विश्व में सतनाम धर्म के अनुयायियों को सतनामी के नाम से जाना जाता है, समाज का सफेद ध्वज हमारे आन-बान का प्रतीक है, हमें अपने कर्म, मन और वचन को सफेद ध्वज में समाहित संदेशो पर ही आधारित रखना चाहिए, तभी झंडे का मान बना रहेगा, और हमें जो सतनामी नाम मिला है, वह सार्थक हो सकेगा, जिससे हमारी आने वाली पीढ़ी भी सत् संस्कृति में चलकर समाज का मान बनाएं रखेंगे एवं सदा उन्नति, विकास की ओर आगे बढ़ते रहेंगे।

06. डंडा:-जैतखांम में पॉच हाथ के डंडे में ही झंडा लगाया जाता है, डंडा शक्ति को प्रदर्शित करता है, परम् पूज्य गुरु घासीदास बाबा जी के संदेश के अनुसार पूरे मानव समाज को अंहिसावादी होना चाहिए, लेकिन साथ ही झंडे मे डंडा भी लगा है, जो शक्ति का प्रतीक है, अर्थात अहिंसा का अर्थ यह नहीं है कि कोई असमाजिक तत्व आपके धर्म को हानि पहुँचाएं, धर्म के प्रतीक को खंडित करता है, समाज में अन्याय करता है, अत्याचार करता है तो हम अहिंसावादी है कहकर हो रहे अन्याय को सहते रहें, जुल्म को सहने वाला जुल्म करने वाले से ज्यादा गुनाहगार होता है। परम् पूज्य गुरु घासीदास बाबा जी का कहना है, कि हो रहें अन्याय, अत्याचारों के खिलाफ आवाज बुलंद करना, शक्ति प्रदर्शन करना हिंसा नहीं है बल्कि अहिंसा का वास्तविक अर्थ यही है, अन्याय के विरूद्ध खड़े होना, अपने धर्म की रक्षा व आत्मरक्षा के लिए हथियार उठाना गलत नहीं है। इसलिए बाबा जी ने जैतखाम में बांस के डंडे का प्रतीक दिया है।

धर्म की रक्षा, आत्मरक्षा
समाज की रक्षा के लिए आवश्यकता पड़ने पर डंडे रूपी शक्ति का सदुपयोग करें।
मरजाव, मिटजाव सतनाम धर्म के नाम पे।
क्या रखा है, छोटे से जान और जहांन में।।

07. मुकुटः- जैतखांम के ऊपरी भाग में टोपीनुमा बर्तन लगाया जाता है, यह मुकुट (टोपी) को प्रदर्शित करता है। परम् पूज्य गुरु घासीदास बाबा जी का कहना है कि ताज मुकुट उसी व्यक्ति को पहनावें अर्थात् अपने गांव क्षेत्र, राज्य, देश व समाज का राजा उसी व्यक्ति को चुनना चाहिये जो व्यक्ति चौरे की तरह कर्म से सुन्दर हो खांभ की तरह संघर्षवान हो शांति, स्वच्छ, निर्मल, पवित्र हो, खान-पान, रहन-सहन, पहनावा ओढ़ावा, रीति-रिवाज, परम्परा सादे झंडे पे आधारित हो, सतनाम धर्म का अनुयायी हो ताकि वह राजा सदा देश व समाज के हित में निष्ठावान होकर कार्य करता रहे। इन पाँच निशानियों के आधार पे परम पूज्य गुरु घासीदास बाबा जी के संदेश-उपदेशों एवं सत् अहिंसा के मार्ग को दर्शाने का प्रयास किया गया है। अतः पूरे मानव समाज से आशा है कि दिये गए ज्ञान को समझकर अपने जीवन में आत्मसात् कर चलने का प्रयास करें जिससे बाबा जी के संदेश पूरे मानव समाज तक पहुँचती रहें।