हे सतनाम हे सतपुरुष

परमपूज्य गुरु घासीदास जी की जीवनी

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परमपूज्य गुरु घासीदास बाबा जी

संत परंपरा में गुरू घासीदास जी का एक विशिष्ट स्थान हैं। कबीर का संगत, नानक का पंगत और गुरू घासी दास जी का अंगत मनखे मनखे एक बरोबर करने की एक सर्वोपरि मार्ग है । बाल्यकाल से ही गुरू घासीदास जी के हृदय में वैराग्य का भाव प्रस्फुटित हो चुका था। मानव समाज में ब्याप्त पशुबलि तथा अन्य कुप्रथाओं का ये बचपन से ही विरोध करते रहे। समाज को नई दिशा प्रदान करने में इन्होंने अतुलनीय योगदान दिया था। सत से साक्षात्कार करना ही गुरु घासीदास के जीवन का परम लक्ष्य था। 'सतनाम पंथ' का संस्थापक भी गुरु घासीदास को ही माना जाता है। बाबा गुरु घासी दास का जन्म छत्तीसगढ़ के तत्कालीन जिला रायपुर, वर्तमान जिला बलौदाबाजार भाठापारा छ.ग.के गिरौद पुरी नामक ग्राम में 18 दिसम्बर सन् 1756 को हुआ था। उनके पिता का नाम मंहगू दास तथा माता का नाम अमरौतिन था, और उनकी धर्मपत्नी का नाम सफुरा था। इनके अमरदास, बालकदास, आगरदास और अड़गढ़िया दास नाम का चार पुत्र व सहोद्रा नाम की एक पुत्री थी ।

गुरु घासीदास का जन्म ऐसे समय में हुआ, जब भारत भूमि मे राज तंत्र पर, धर्म तंत्र हावी हो गया था। लोग धर्मांध हो गए थे, सारे धर्मों मे ढोंग पाखंड का बोल बाला हो गया था। ऊंच नीच, भेदभाव, छुआछूत, जात पात असहिष्णुता चरम पर था। धर्म के नाम पर कत्ले आम हो रहा था। चारो तरफ हाहाकार मचा हुआ था। मानवता कराह रहा था। क्या करें, क्या न करें, लोगों को राह बताने वाला कोई नही था। इसी समय संतो का आगमन एक श्रृंखला मे हुआ । और सभी संत,धर्म सुधारक थे जिन्होने ...... हिंदूओं को फटकारा, मुस्लिमों को ललकारा , ईसाईयों और सारे धर्मों को नकारा और सभी जन मानस को सावधान किया कि ऐ मेरे संतों ! धर्म के पचड़े में मत पड़ो, सारे धर्मों में धोखा ही धोखा है। भाग्य और भगवान के भ्रम जाल में मत फंसो। आओ ! हम एक ऐसे रास्ते में चलें जो इस धरा में ही स्वर्ग की निर्माण करें। और सबके हृदय में ऐसे भाव भरें। जहां प्रेम, दया, करूणा, क्षमा,भाईचारा हो,पेट भर भोजन, तन पर कपड़ा हो, रहने के लिए मकान हो, और सबके लिए सम्मान हो, वहीं स्वर्ग है ,और वही मार्ग सतनाम का मार्ग है जहां.... "न कोई धर्म होगा, न कोई वर्ग होगा, न कोई जात होगा, न कोई पात होगा । " "कोई छोटा होगा, न कोई बड़ा होगा, न ऊंचा होगा न, नीचा होगा दुनिया के सारे मानव बराबर होगा। " संतो के सद प्रयास से ही विश्व धरा पर "मनखे मनखे एक बरोबर" समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व और न्याय के नवजारण का उदय हुआ।समाज में छुआछूत, ऊंचनीच, झूठ-कपट का बोलबाला था, बाबा ने ऐसे समय में समाज में समाज को एकता, भाईचारे तथा समानता का संदेश दिया।गुरू घासी दास जी की सत्य के प्रति अटूट आस्था की वजह से ही इन्होंने बचपन में कई चमत्कार दिखाए, जिसका लोगों पर काफी प्रभाव पड़ा। गुरु घासी दास जी आम जन मानस को सतनाम मार्ग जो सत अहिंसा के परम पराकाष्ठा पर शुद्धता सात्विकता से जीवन जीने की प्रेरणा दी। उन्होंने न सिर्फ सत्य की आराधना की, बल्कि अहिंसा को भी परमोधर्मा माना और समाज में मंद मांस और नशापान से दूर कर नई जागृति पैदा की। अपनी तपस्या से प्राप्त ज्ञान और शक्ति का उपयोग मानवता की सेवा के कार्य में किया।इसी प्रभाव के चलते लाखों लोग बाबा के अनुयायी हो गए। फिर इसी तरह छत्तीसगढ़ में 'सतनाम पंथ' की स्थापना हुई। इस संप्रदाय के लोग उन्हें अवतारी पुरुष के रूप में मानते हैं। गुरु घासीदास के मुख्य रचनाओं में उनके सात वचन सतनाम पंथ के 'सप्त सिद्धांत' के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इसलिए सतनाम पंथ का संस्थापक भी गुरु घासीदास को ही माना जाता है।

गुरू बाबा घासी दासी जी का सतनाम प्रचार अभियान इतने जनप्रिय और लोक हितकारी हुआ कि लोग अपने पूर्व के जाति-पाति धर्म-वर्ण रीति-नीति, और संस्कृति को तिलांजलि देकर सदमार्ग को अंगीकृत कर गुरू घासीदास जी के चरणों में लोग समर्पण भाव से जमीन- जायदाद, सोनें- चांदी चढ़ाते गए। धरमपुरा के लोहारिन अपनी जमींदारी चढ़ा दिए। वहां लाखों -लाखोंअनुयायियों का इतना रूपया-पैसा, धन-दौलत का समर्पण आया कि अपार भंडार हो गया। इसलिए उस गांव ही का नाम भंडारपुरी हो गया। जहां गुरू का निवास बना। ब्रिटिश शासन भी जिस दौर में भारत के कई राजा महा राजाओं को खत्म किए जा रहे थे, उस दौर में उनके द्वितीय पुत्र बालकदास को राजा के पदवी से नवाजा गया। बोड़सरा और कई गांवों की जमींदारी दिए। सोने जड़ित मुठ वाला तलवार, सैनिक और हाथी घोड़े की सवारी भेंट किए। फिर राजसी ठाठ-बाट में सतनाम का प्रचार करने लगा। भंडार पुरी में किलानुमा पचखंडा मोतीमहल बनवाया। बीच आंगन में चांद सूरज जोड़ा जैतखाम गड़वाया। मोती महल के कंगूरा में सोने का कलश चढ़ाया। गरजते सिंह और तीन बंदरों का दृश्यांकन कराया । जो सतनाम ज्ञान के प्रभाव को उद्धृत करता है । 1-सोने का कलश ( समृद्ध सम्पन्नता का ) 2-गर्जना करते सिंह ( साहसी, बलशाली ) 3- तीन बंदर के माध्यम से सतमार्ग के मौलिक सतनाम ज्ञान को उपदेशित करता है कि ( असत्य न देखो , असत्य न कहो , असत्य न सुनो )

गुरू घासीदास बाबा जी का आत्मज्ञान

बाबा जी को ज्ञान की प्राप्ति छतीसगढ के बलौदा बाजार जिला के गिरौद गांव सोनाखान परिक्षेत्र के घने जंगल बीच छाता पहाड़ में छ: महिना कठिन तपस्या के बाद औरा-धौरा और तेदूं के त्रिगछ तले सद्ज्ञान प्राप्ति हुई । गुरू घासी दास जी समाज में व्याप्त जाति गत विषमताओं को नकारा। उन्होंने उच्च वर्णों के प्रभुत्व को नकारा और कई वर्गों में बांटने वाली जाति व्यवस्था का विरोध किया। उनका मानना था कि समाज में प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक रूप से समान हैसियत रखता है। गुरू घासीदास ने मूर्तियों की पूजा को वर्जित किया। और अपन घट ही के देव ल मनइबो के भाव को प्रतिपादित किया । वे मानते थे कि उच्च वर्ण के लोगों और मूर्ति पूजा में गहरा सम्बन्ध है।गुरू घासी दास पशुओं से भी प्रेम करने की सीख देते थे। वे उन पर क्रूरता पूर्वक व्यवहार करने के खिलाफ थे। सतनाम पंथ के अनुसार खेती के लिए गायों का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिये। गुरू घासीदास के संदेशों का समाज के पिछड़े समुदाय में गहरा असर पड़ा। सन् 1881 की जनगणना के अनुसार उस वक्त लगभग 4 .36 लाख लोग सतनाम पंथ से जुड़ चुके थे और गुरू घासीदास के अनुयायी थे। जिसे ब्रिटिश शासन 1881 के जनगणना में सतनामी रिलिजन के नाम से पृथक रूप से दर्शाया गया है । छत्तीसगढ़ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी वीर नारायण सिंह पर भी गुरू घासीदास के सिध्दांतों का गहरा प्रभाव था। गुरू घासीदास के संदेशों और उनकी जीवनी का प्रसार पंथी गीत व नृत्यों के जरिए भी व्यापक रूप से हुआ। यह छत्तीसगढ़ की प्रख्यात लोक विधा भी मानी जाती है।

सप्त सिद्धांत

गुरु बाबा घासीदास जी के सात वचन सतनाम पंथ के सप्त सिद्धांत के रूप में प्रतिष्ठित हैं,निम्नलिखित का उल्लेख है:-

  1. सतनाम सतपुरष पर अडिग विश्वास रखो
  2. मुर्ति पुजा मत करो
  3. जाति भेद के प्रपंच में मत पड़ो
  4. जीव हत्या मत करो ( मांसाहार मत करो)
  5. नशा सेवन मत करो
  6. पर स्त्री को माता जानो ( नारी के सम्मान करो )
  7. गाय को हल में मत जोतो

अमृतवाणी या उपदेश

1 - सत ह मनखे के गहना आय। 2 - मनखे मनखे एक बरोबर। 3 - सतनाम ल जानव, समझव, परखव तब मानव । 4 - सभी जीवों म दया करव। 5 - सतनाम ल अपन आचरण में उतारव। 6 - अंधविश्वास, रूढ़िवाद ,परंपरा वाद ल झन मानव । 7 - दाई ददा अउ गुरू के सनमान करिहव । 8 - सतनाम घट-घट में समाय हे । 9 - मेहनत के रोटी ह , सुख के आधार आय । 10 - पानी पीहु जान के , अउ गुरू बनाहव छान के । 11 - मोर ह सब्बो संत के आय ,अव तोर ह मोर बर कीरा ये । 12- पहुना ल साहेब समान जानिहव । 13 - इही जनम ल सुधारना साँचा ये । 14 - गियान के पंथ , किरपान के धार ये । 15 - दीन दुःखी के सेवा , सबले बड़े धरम आय । 16 - मरे के बाद पीतर मनई है, मोला बईहा कस लागथे । 17 - जतेक हव सब, मोर संत आव । 18 - मंदिरवा म का करे जईबो, अपन घट के ही देव ल मनइबो। 19 - रिस अव भरम ल त्यागथे, तेकर बनथे । 20 - दाई ह दाई आय , मुरही गाय के दुध ल झन दुहिहव । 21 - बारा महीना के खरचा , जोर लुहु ,त भक्ति करहु । 22 - ये धरती तोर ये ,येकर सिंगार करव। 23 - झगरा के जर नइ होवय, ओखी के खोखी होथे । 24 - नियाव ह सबो बर बरोबर होथे। 25 - मोर संत मन मोला काकरो ल बड़े कहिहव , नहि ते मोला हुदेसना म हुदेसे कस लागही। 26 - भीख मांगना मरन समान ये, न भीख मांगव , न दव। 27- नशा अव जुआ से दुर राहव। 28 - खेती बर पानी अव संत के बानी ल जतन के राखिहव। 29 - पशुबलि अंधविश्वास ये नइ देना चाही। 30 - जान के मरइ ह तो मारब आय ,कोनो ल सपना में मरई ह घलो मारब आय। 31 - अवैया ल रोकन नहीं अऊ जवैया ल टोकन नहीं। 32 - चुगली अऊ निंदा ह घर ल बिगाड़थे। 33 - धन ल उड़ा झन ,बने काम में लगावव। 34 - जीव ल मार के झैन खाहु। 35 - गाय भैंस ल नागर मे झन जोतहु । 36 - मन के स्वागत ह असली स्वागत आय । 37 - जइसे खाहु अन्न वैसे बनही मन ,जैसे पीहू पानी वैसे बोलहु वानी। 38 - एक धुबा मारिच तुहु तोर बराबर आय । 39 -काकरो बर काँटा झन बोहु । 40- बैरी संग घलो पिरीत रखहु। 41 - अपन आप ल हीनहा अउ कमजोर झन मानहु। 42 - तरियां बना ,दरिया बना , कुआं बना , मंदिर बनई मोर मन नई आवय, तोला बनाना हे तो दुर्गम ल सरल बना।

समाजिक सुधार

संत गुरु घासीदास ने समाज में व्याप्त कुप्रथाओं का बचपन से ही विरोध किया। उन्होंने समाज में व्याप्त छुआछूत की भावना के विरुद्ध 'मनखे-मनखे एक बरोबर' का संदेश दिया। छत्तीसगढ़ राज्य में गुरु घासीदास की जयंती 18 दिसंबर से माह भर व्यापक उत्सव के रूप में समूचे राज्य में पूरी श्रद्धा और उत्साह के साथ मनाई जाती है। इस उपलक्ष्य में गाँव-गाँव में मड़ई-मेले का आयोजन होता है। गुरु घासीदास का जीवन-दर्शन युगों तक मानवता का संदेश देता रहेगा। ये आधुनिक युग के सशक्त क्रान्तिदर्शी गुरु थे। इनका व्यक्तित्व ऐसा प्रकाश स्तंभ है, जिसमें सत्य, अहिंसा, करुणा तथा जीवन का ध्येय उदात्त रुप से प्रकट है। छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में सामाजिक चेतना एवं सामाजिक न्याय के क्षेत्र में 'गुरु घासीदास सम्मान' स्थापित किया है।

मुख्य कार्य

  1. सामाजिक ,आर्थिक असमानता को दूर करने के लिए संर्घष किया ।
  2. 1806 ई० में छ० ग ० में पिंडारियों ( डकैत , लुटेरा , हत्यारे ) आये थे , उन्हें मार भगाया ।
  3. सभी प्रकार के न्याय के कार्य किये ।
  4. जल संकट को देखते हुए तालाब खोदने की प्रेरणा दी व तालाब खोदवाया ।
  5. नारी सम्मान को विशेष स्थान दिया ।
  6. अंधविश्वास और जादू - टोना को दूर करने के लिए लोगो को जागरूक किये ।
  7. टोनहिन प्रताड़ना से महिलाओं को बचाया ।
  8. सभी प्रकार के बाली ( नर बलि , पशु बलि ) प्रथा पर रोक लगवाया ।
  9. समाज में उच्च नैतिकता स्थापित करने के लिए सात नैतिक उपदेश दिए।
  10. भू-स्वामित्व के लिए संघर्ष किया और जमीदारी, सामंतवादी प्रथा को समाप्त किया ।
  11. जाति-भेद, छुआछूत को दूर किया ।
  12. मूर्ति पूजा का विरोध किया ।
  13. सतीप्रथा को पूरे छग क्षेत्रों में बंद करवाया ।
  14. विधवा स्त्रियों के पुनर्विवाह का अधिकार दिलाया ।
  15. स्त्रियों को पुरुषों के समान बराबरी का अधिकार दिया ।
  16. उच्च नैतिकता के बल पर कमजोर समाज को राजा बना दिया ।
  17. व्यावहारिक तौर पर समानता , स्वतंत्रता और न्याय के प्रजातांत्रिक तरीकों की शिक्षा दी ।
  18. धन संपत्ति जमीन, मान सम्मान पाने का अधिकार दिलवाया ।

गुरु घासीदास ने विशेष रूप से छत्तीसगढ़ में सतनाम का प्रचार किया। गुरू घासी दास के बाद, उनकी शिक्षाओं को उनके पुत्र अमरदास और राजा गुरू बालक दास ने जन जन तक पहुँचाया। गुरू अमरदास जी अध्यात्मिक शक्ति से जप तप ध्यान का लोगों को बताकर उनके दुख दर्द से निजात दिलाते थे । राजा गुरू बालकदास जी हर गांव में अखाड़ा सिखाकर सतनाम सेना बनाया। मराठा के शोषण अत्याचार और पिंडारियों के लुटपाट से सुरक्षा देते थे उनके मान सम्मान व हक अधिकार को दिलाते थे। जिससे प्रेरित होकर लोग अपने पूर्व के जाति-पाति रीति-नीति धरम-संस्कृति को तिलांजलि देकर सतनाम मार्ग में चलने लगे। गुरु घासीदास ने छत्तीसगढ़ में सतनामी संप्रदाय की स्थापना की थी इसीलिए उन्हें ‘सतनाम पंथ’ का संस्थापक माना जाता है

गुरु घासीदास का समाज में एक नई सोच और विचार उत्पन्न करने के बहुत बड़ा हाथ है। घासीदास जी बहुत कम उम्र से पशुओं की बलि, अन्य कुप्रथाओं जैसे जाती भेद-भाव, छुआ-छात के पूर्ण रूप से खिलाफ थे। उन्होंने पुरे छत्तीसगढ़ के हर जगह की यात्रा की और इसका हल निकालने का पूरा प्रयास किया।उन्होंने (Satnam) यानी की सत्य से लोगों को साक्षात्कार कराया और सतनाम का प्रचार किया।और सतनाम प्रचारक के रूप में गुरू अमर दास जी और राजा गुरू बालक दास जी की कीर्ति चहूंओर फैलने लगी। गुरू अमर दास जी के जन्म दिवस आषाढ़ पूर्णिमा के दिन लोगों को सततागी धारण कराकर कंठी पहना कर नाम पान, पाठ पीढ़ा देकर गुरू मुखी बनाते थे । वैसे ही राजा गुरू बालक दास के जन्म दिवस भादों कृष्ण पक्ष अष्टमी के दिन लोगों के आंगन में निशाना स्थापित कराकर पालो चढ़ाते थे। इस तरह गुरू घासीदास जी अपने दोनों पुत्रों के जन्म दिवस को संस्कारिक स्वरूप देकर आस्था विश्वास के साथ भव्य बनाते थे। उन्होंने सत्य के प्रतीक के रूप में जैतखाम’ को दर्शाया – यह एक सफ़ेद रंग किया लकडी का खंबा होता है जिसके ऊपर एक सफेद झंडा फहराया जाता है। सफेद रंग को सत्य का प्रतीक माना जाता है। जिसे हर गांव के सतनामी मुहल्ले के बीच चौराहें स्थापित किया जाता है। जिसे देखकर आने जाने वाले लोग सतमार्ग के प्रति प्रेरित होते रहे।

सतनाम का प्रचार करते गुरू अमरदास जी 1840 में और राजा गुरू बालक दास जी 1860 में बलिदान हो गए। गुरू घासीदास जी के मन में फिर एक बार विच्छोह और विरक्ति का भाव जागृत हो गया। और 1861 में एक दिन गिरौदपुरी के बिहड़ जंगल की ओर अज्ञातवास में चले गए, जिसे उनके अनुयायी अछप हो गया कहते हैं,अत: उनकी मृत्यु तिथि अज्ञात है।